बहुत दिनों के बाद सुबह आंखों की खिड़की खोली थी
बहुत दिनों के बाद मेरे कानो में कोयल की " कुहक़ी" थी
सुबह के नरमी के साथ प्यार वाली चुस्की थी
शरीर के हर अंगों से फुर्ती जैसे सिहरी थी
बहुत दिनों के बाद मेरे कानो में कोयल की " कुहक़ी" थी
सुबह के नरमी के साथ प्यार वाली चुस्की थी
शरीर के हर अंगों से फुर्ती जैसे सिहरी थी
कोयल की इस मधुर कुहुक ने ताजेपन से नहलाया था
गंगा के तट पर जैसे पवन ने पंखा झाला था !!
गंगा के तट पर जैसे पवन ने पंखा झाला था !!
कोयल की इस मधुर कुहुक ने, कानों में मिश्री घोली थी
बसन्ती दुल्हन ने जैसे घूँघट अपनी खोली थी
बसन्ती दुल्हन ने जैसे घूँघट अपनी खोली थी
कोयल की इस मधुर कुहुक ने दिल में मृदंग बजाय था
ग्रीष्म की तपती धूप में जैसे शीतल जल से नहलाया था
कोयल की इस मधुर कुहुक ने मन में प्रेम स्पंदन कर डाला था
पहली प्रेम की मुखड़े ने जैसे अपने नज़रों से घायल कर डाला था
कोयल की इस मधुर कुहुक को सिर्फ कानों से न तुम पान करो
बसंती हवाओँ को हर श्वाश से उनका मान करो
उतरने दो तंद्राओ में अपनी , जीवन को प्रस्फुटित होने दो
उमँग ,रंग से तुम खिल जाओ ,जीवन को बसन्ती होने दो!!
©amit k pandey
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