चिराग हूँ मैं
प्रकाश ही प्रकाश हूँ
अँधेरे की निजात हूँ
तेरी जरुरत हूँ, चाह हूँ
मैं झोपड़ी में जलू
या महलों को प्रकाशित करूँ
मैं पहाड़ों को रौशन करूँ
या पाताल को ज्योति से भरूँ
अँधेरा स्वयं छट जाता है
दृश्य उपस्थित हो जाता है
ब्रह्माण्ड नजरों में समाहित हो जाता है
पथ का ज्ञान आसानी से हो जाता है
मुझे वृथा कोई चाह नहीं होती
ख़ास जगह की ख्वाइश न होती
लौ लिए बुझने तक धधकता हूँ
तेरे लिए अंधेरे से लड़ता हूँ!
चाह! मन की माया है
इंसान की प्यासी काया है
चाह की दौड़ खत्म नहीं होती
इंसान की ऊर्जा यूँ ही व्यर्थ होती!
चिराग का काम जलना भर है
प्रकाश बिखेरना भर है
अँधेरे को दूर भगाना
पथिक को राह दिखाना !
तू भी बस चिराग बन
त्रस्त मानवता का त्राण बन
जहाँ भी जलने को मिले
पूर्ण ऊर्जा से धधक ! (बस धधक)
चाह मन का अवरोध है
तेरे नैसर्गिकता का विरोध है
निज में "बरस रहे आनंद "का पहचान कर
पूर्ण जीवन का आह्वान कर !!
बनना तू पूर्ण मानव
खण्ड खण्ड में ना बटा रहेगा
दुनिया को आलोकित कर
तू उसे भी सम्पूर्ण करेगा!!
© अमित कुमार पाण्डेय