Saturday, 27 February 2016

अस्तित्व के प्रश्न !

अस्तित्व-
नहीं जनता हूँ मैं कौन?
पर साँसे मुझ में भी चलती है
और जीवन के कई विविध रूप
मेरे होंने में दिखती है

हूँ मैं कौन ?कहाँ से आया?
हूँ क्यों ज़िंदा ?, मुर्दों से अलग
किसकी इक्छा हूँ?
हूँ किसकी परछाई?

क्यों है पलते अरमान?
और क्यों सपने मैं बुनता हूँ?
क्या है और पाने को?
किस ओर निरंतर चलता हूँ?

चेतना-  
कहते हैं ! ये मृत्यु लोक है
सब लीला करने आते है
अदृश्य के हाथों की कठपुतली
हम सब नाचे जाते हैं!

कहते हैं! हमारे होने में
उसका ही होना है
जीवन के सब रूपों में
वही अभिव्यक्त होता है

और ये इक्छा भी उसकी है
ये चलना भी उसका है
तथा इस भव्य मंच पर
चल रहा नाटक भी उसका है!

रही बात सपनों की
तो वो प्राणी का  बल है
नूतन पथ का खोज करें वो
निज का ही कल्याण करे।

अस्तित्व
-ये अदृश्य कौन है?, चाहता क्या है?
कुछ समझ मुझे न आता है
मेरे जीवन लीला से
उसको फर्क कहाँ क्या आता है?

सब जान बुझ कर भी
क्यों हम से लीला करवाता है?
मेरे अंदर होकर भी
फिर, मुझ से जुदा नजर क्यों आता है?

चेतना-
कहते हैं ये परम पुरुष है
सब कुछ जानने वाला है
परमपिता है किन्तु अदृश्य
पर दृश्य दिखाने वाला है

उसको चाह नहीं
परम साक्षी भाव है वह।
ब्रह्माण्ड में विस्तृत शून्यता का
परम शून्य आधार है वह !

परम चेतना है ये
तेरे भीतर -बहार रहता है
मोह का बंधन तोड़ के देख
साक्षत्कार अभी कर सकता है।

.....continued

© अमित कुमार पाण्डेय

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