क्या है माया ? कृष्ण !

हे सखा! हे माधव! हे मुकुंद!
मुझ पर न हो तुम्हारी कृपा शिथिल-कुंद।
हे जनार्दन, हे सुदर्शनधारी, हे योगेश्वर!
मेरी एक संका दूर करो, हे मुरलीधर!!
क्या है यह जीवन? क्या सचमुच है सब माया?
भांति-भांति का रूप धरें सब, क्या झूठ है यह काया?
मायापति मुस्कुराए, अपने सखा के कंधे पर हाथ फिराया और कहा,
समय आने पर पहचान कराऊँगा,
अपने सखा को माया से परिचित करूँगा!
इस बात को गए हैं अनेक दिन बीत,
भूल ही गए महाराज सुदामा, पर न भूले द्वारकाधीश!
एक दोपहरी विहार उपरांत थक कर दोनों मित्र
जा पहुचें कृष्ण-सुदामा स्वच्छ गोमती तीर,
चलो मित्र ! कलकल जल में , कर ले थोड़ा स्नान
और मिटा लें प्यास भी पी कर मीठा नीर !
दोनों मित्र लगे नहाने , माँ गोमती को प्रणाम कर।
तृप्त हो वासुदेव निकले सरिता में कुछ एक डुबकी लगा कर,
करने लगे द्वारकाधीश पीतांबर धारी वहीँ नदी के तीर!
पर अभी तक नहीं हुआ था सुदामा का थकान क्षीण!
सुदामा ने निश्चिंत जान कर, लिया डुबकी एक और !
और उधर किया कृष्ण ने क्रीड़ा, घेर लिया माया घनघोर।
सहसा कलकल गोमती में उठा ज्वार कठोर ,
बह गए सुदामा न जाने किस ओर!
सब कुछ ही वो भूल गए, न रहा कुछ सुझ !
लगे हाथ-पैर मारने, हो कर किंकर्तव्यविमूढ़!
अचानक अपने आप को पाया किनारे पर एक ,
जहाँ हथिनी एक खड़ी थी, लेकर माला भीड़ समेत!
और लोग सज-धज कर टकटकी लगाए,आँक रहे थे अपनी किस्मत को।
ग़ज़! ना जाने, वर ले राजा ! भाग्यशाली किस जन को!
हथिनी ने फूलों की माला सुदामा के गले में डाला
लोग कर उठे जय-जयकार, धन्य है महाराज हमारा।
महाराज! सुदामा! सहसा ही सहमे,
पूछे बात क्या है? क्यों लगा रहे राजाओं जैसे जयकारे!
इस अद्भुत देश के बारे में, तब लोगों ने वृत्तांत सुनाया !
निसंतान राजा के स्वर्ग-गमन उपरांत , यैसे ही परम्परा पूर्वजों ने हैं निभाया!
चुना जाता ईसी बिधि हमरा भाग्य विधाता संभ्रांत!
जिस पर ये दिव्य -कुंजरी जताती विश्वास , वही सिंघासन करे आबाद!!
भाग्यवान-विप्र राजा बन, चला महल की ओर लिए सारे अधिकार !
पीछे सैनिक कर रहे थे महाराज की जय जयकार।
राज करते बीत गए, कुछ एक महीने चार !
विवाह प्रस्ताव पर ,अब राजा ने किया विचार।
यज्ञ हुआ, पूजा हुई ,नृप ने खोल दिया खजाना !!
ब्राह्मण , दरिद्र और प्रजा को रूठ ने का ना दिया कोई बहाना !!
उत्सव हुआ महल में, जगह जगह लग गए मेले !
नए वस्त्र और सुंदर आभूषणों में राजा- रानी लग रहे थे खिले खिले!
वेद मंत्र ,आशीर्वचन मध्य हैं मोहक फूलों के गंध !
धूम-धाम से महाराज,प्रणय सूत्र में गए बंध !
राजा-रानी की जय-जयकार से, आसमान हुआ गुंजायमान।
सभी चले अपने घर को लेकर हरि का नाम।
महाराज रानी को पाकर उल्लास में डूबे,
राज-काज और रानी में दिन बिताना लगे।
बने दो बच्चों के पिता जैसे दिन रहे थे बीत,
घर-संसार और राज-पाट में भूले सारे अतीत।
सुबह बिताता वंदना-पूजन में,
दोपहर देश कार्य में,
शाम बितता आखेट-प्रमोद में,
निशा रानी आगोश में।
प्रजा खुशहाल, राजा निश्चिंत,
समय बीत गए एक युग।
माया ने प्रभाव दिखाया, समय ना रहा अनुकूल
रोग ग्रस्त हुई भार्या, कोई कुछ समझ नहीं पाया
राज वैद्य ने किये सारे उपाय, पर बचा न पाया!!
राजा हुए शोकाकुल! हाय यह कैसी विपदा आई!
क्रंदन करते राजा पर, पर एक और मुसीबत छाई।
गंभीर हुए दरबारी सब, तुरंत ही सभा बुलाई
महाराज समक्ष जा कर, अपनी अटल परम्परा सुनाई
रानी चिता में जीवित प्रवेश करना होता है राजा को
तभी मिलेगी मुक्ति हमारी रानी और आपकी भार्या को!
सुन कर ये कठोर धर्म,
नृप का हृदय गया बैठ ।
पत्नी खोने का दुख भूल,
स्वयं में गया पैठ।
बहुत मंत्रणा के बाद भी, पाकर न बचने का कोई उपाय,
राजा अंग रक्षकों को लिए नदी में गए हैं डुबकी लगाए।
नहाते समय भी रुक नहीं रहे थे, सोच-सोच कर आँसू।
होगा जलना जिंदा! ना जाने किस जन्म का पाप बोल कर इसको कोसू !
रक्षा करो हे गोविंदा! अनायास मुख से निकला श्री कृष्ण का नाम !
लिया डुबकी एक और विप्र ने और कर गया नाम कमाल।
डुबकी से निकले सुदामा जैसे हो कोई स्वप्न से जागे,
कहीं कोई और न था, अपनी मुरलीधर है पीताम्बर बंधे!
हाथ जोड़कर, आँखों में लिए श्रद्धा के जल,
विचार रहे थे विप्र, कौन से पुण्य का है ! यह सुदर्शन! यैसा फल !
एक डुबकी भर में लिया जी, एक पूरा जीवन।
और श्री कृष्ण महिमा ने नष्ट कर दिया संकायों का वन!
होकर प्रस्तुत लीलाधर के सामने, किया सखा को प्रणाम।
माया-रचनाकार ने भी किया अभिवादन स्वीकार,
लेकिन भाव थे उनके वैसे जैसे हों मित्र के मनःस्थिति से अंजान।
और सुदामा लगा रहे थे अपने मन ही मन अनुमान!
अनन्य भाव से कृष्ण की ओर निहार कर,
जिक्र किया घटना का, पूछ लिया योगेश्वर से,
क्या नहीं जानते,क्या हुआ हमारे साथ ?
सब कुछ तुम्हीं करते ! फिर कैसे बने रहते हो इतने भी नादान?
क्या है असली! क्या है नकली?
क्या है सच का जीवन??
जो अभी-अभी जीवन भोगा
या जो अभी लिए प्रस्तुत सुदामा तन!
बोले कृष्ण! विप्र के देख कर शंकाग्रस्त विचार।
मुझ-अतिरिक्त सब है माया,
मैं ही असली, मैं ही जीवन।
मैं ही पलता सब और,
मुझ को ही सब में देखो, देखो मेरा ही सब विस्तार।
मुझ छोड़, बाकी सब नकली, मेरी माया है सबसे तगड़ी।
संसारी और अज्ञानी की क्या करूँ मैं बात,
बड़े-बड़े ज्ञानी और तपस्वी, भ्रमित हो जाते क्षण भर में योगी।
योगमाया जब अपना खेल दिखाए,
जन्म-जन्मांतर तक देहाभिमान से छूट न पाए।
एक मुझ ईश्वर का नाम सहारा,
ले कर पार करते हैं! जो है हारा।
मैं ही सच्चा, मैं ही ब्रह्म, सब जीव मेरे ही अंश।
मुझे पाकर और नहीं कहीं है जाना,मैं ही जीवन यज्ञ रूपी प्रसाद!
मैं ही परम विश्रांति, मैं ही चिर शांति।
मैं ही परम गति, मैं ही परमानंद!
अपना संदेह मिटा कर
प्रभु के चरणों में शिश झुका कर
बोले ब्राह्मण महान!
घट-घट वासी ओ अविनाशी !
अमित है तुम्हारा विस्तार ! अमेया हैं तुम्हारा श्री और कांति!
तुम ही सब में, सब है तुम में ! दूर हुआ हमारी भ्रांति!!
- रचनाकार भगवान श्री कृष्ण
- निमित्त- Amit kr Pandey
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